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बैलजीनियम तम्बाकू का सिगरेट उद्योग
के लिए विशेष महत्व है। हमारे देश में इस किस्म की उत्तम तम्बाकू का आयात किया जाता
था। पूसा स्थित वनस्पति विज्ञान केन्द्र ने वर्ष 1964 में सिगरेट व्यवसाय के अनुकूल
तम्बाकू की उन्नत किस्मों का विकास किया और तम्बाकू की शुद्धि के लिए जरूरी धूमनाल
(फ्लू करिंग) तकनीक विकसित की। इन आरंभिक अनुसंधानों के नतीजो ने तम्बाकू का विकास-मार्ग
प्रशस्त किया और इसके परिणामस्वरूप तम्बाकू का आयात न केवल रूका बल्कि अब हमारे देश
को तम्बाकू निर्यातक देशों की विशेष श्रेणी में सम्मिलित किया गया। इस तरह पूसा संस्थान
के शुरूआती दौर के शोध-कार्य से देश का सिगरेट उद्योग लाभान्वित हुआ है। नील की खेती
में ब्रिटिश प्रशासन की विशेष रूचि थी किन्तु इस फसल को ग्लानि रोग से काफी हानि होती
थी। इसलिए पूसा वनस्पति विज्ञान केन्द्र की देखरेख में 10, 15 और 20 नम्बर से प्रचलित किस्मों को उत्पन्न किया गया।
इन किस्मों से नील की उपज बढ़ी और ग्लानि रोग से होने वाली अपार क्षति को रोका जा सका।
पूसा संस्थान ने 1932-33 में विश्व विख्यात दुधारू गाय की साहीवाल नस्ल का विकास किया।
इस नस्ल की गाय में दूध की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए आनुवांशिक गुणों का समावेश
किया गया था जिससे दूध की उत्पादकता बढ़ी, जो अपने पैतृकों की तुलना में कई गुना अधिक थी। साहीवाल नस्ल का विकास इस संस्थान
की एक विशिष्ट उपलब्धि मानी जाती है। इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा ने मानव संसाधन विकास में उत्कृष्ट कार्य किया।
इस संस्थान ने वर्ष 1923 में एसोशिएटशिप डिप्लोमा (आई.ए.आर.आई.एसोशिएट) के रूप में
दो वर्षीय स्नातकोत्तर प्रशिक्षण पाठ्यक्रम शुरू करने का औपचारिक निर्णय लिया। इस पाठ्यक्रम
में जिन छात्रों ने शिक्षा ग्रहण की वे देश की राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान एवं कृषि शिक्षा
के आधार स्तम्भ सिद्ध हुए। जमीनी जल के समुचित उपयोग के लिए जल प्रबंधन केन्द्र की
नींव डाली गई। फसल सुधार के क्षेत्र में आनुवांशिक मानचित्रण, माॅलीक्यूलरी मार्कर, जीनोम सिक्वेसिंग तथा पराजीन से संबंधित अनुसंधानों के लिए संस्थान ने स्थापित
लाल बहादुर शास्त्री जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र अग्रणी भूमिका निभा रहा है। पादप विषाणुओं
पर अनुसंधान की शुरूआत भा.कृ.अ.सं. में हुई थी और विषाणुओं पर अनेक मौलिक कार्य किए
गए जिसका नेतृत्व डॉ. श्यामा प्रसाद राय चैधरी ने किया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्
ने देश में पादप-विषाणुओं पर व्यावहारिक तथा अग्रणी अनुसंधान की दिशा निर्देशिका करने
के अभिप्राय से इन संस्थान में पादप-विषाणुओं के उत्कृष्टता केन्द्र की स्थापना की
है। संस्थान की राष्ट्रीय फाइटोट्राॅन सुविधा दक्षिण एशिया में नियंत्रित पर्यावरण
में अनुसंधान की सुविधाएं उपलब्ध कराने का एकमात्र केन्द्र है। नई संकल्पनाओं और नवीनतम
दृष्टिकोणों के माध्यम से कृषि-प्रसार, प्रौद्योगिकी मूल्यांकन और इनके हस्तांतरण के लिए कृषि प्रौद्योगिकी सूचना केन्द्र
स्थापित किये गये। हमारे देश में विगत दस दशकों के दौरान हुई कृषि प्रगति में संस्थान
का बहुत बड़ा योगदान है। संस्थान के तत्कालीन निदेशक डा.बी.पी. पाल के मार्गदर्शन और
उनके अथक प्रयासांे से गेहूँ की अनेक किस्मों में एन.पी. 700 और एन.पी. 800 श्रृंखला
का विकास हुआ। इन किस्मों में गेहूं के रतुआ रोग के लिए उच्च प्रतिरोध क्षमता थी तथा
इनके दानों की गुणवत्ता भी बहुत अच्छी थी। पादप रोग विशेषज्ञ डॉ. कर्मचन्द मेहता की
रोग प्रतिरोधी किस्मों के विकास में अहम् भूमिका रही। उन्होंने डॉ. पाल के साथ मिलकर
सराहनीय कार्य किया। इन्ही शोधों के नतीजों से उच्च उपजशील, बौनी,
दानांे की अच्छी
गुणवत्ता युक्त और उर्वरकों तथा सिंचाई के अनुकूल परिणाम देने वाली गेहूं की किस्मों
का विकास हुआ। गेहूं की विशिष्ट किस्मों जैसे ‘कल्याणसोना’ और ‘सोनालिका’ को देश के बहुत बड़े भू-भाग में उगाया गया। भा.कृ.अ.
संस्थान द्वारा विकसित गेहूँ की किस्म एच.डी.2329 की प्रतिवर्ष 4 मिलियन हैक्टर क्षेत्र
में खेती होती रही है। इस सफलता का श्रेय मुख्यतः गेहूं प्रजनक स्व. श्री वी.एस. माथुर
को जाता है। गेहूं क्रांति के फलस्वरूप वर्ष 1967-2004 के दौरान 1000 मिलियन टन से
भी अधिक अतिरिक्त गेहूं की उपज प्राप्त हुई, जिसका मूल्य खरबों रूपये आंका गया। गेहूं के रतुआ रोग के ‘पक्सीनिया-पथ’ की खोज और इस पथ में जीन- डिप्लायमेंट के माध्यम से इस रोग के नियंत्रण में डॉ.
एल.एम.जोशी और उनके सहयोगियों की विशिष्ट भूमिका रही है। अधिक पैदावार वाली चावल की
बौनी सुगंधित किस्म पूसा बासमती-1 इस संस्थान में विकसित हुई और इसे 1989 में बुआई
के लिए जारी किया गया। चावल की इस किस्म का देश के कुल बासमती निर्यात में लगभग 50
प्रतिशत का योगदान है। इसके निर्यात से देश को प्रतिवर्ष 1000 करोड़ रूपये की विदेशी
मुद्रा प्राप्त होती है। वर्ष 2001 में जारी की गई सुगंधित धान की पहली संकर किस्म
पूसा आर.एच. 10 के विकास से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में सुगंधित चावल के निर्यात की
सम्भावना बढ़ी है। मक्का के उत्पादन में वृद्धि और इस फसल के सुधार कार्य में गति लाने
के उद्देश्य से संस्थान ने विदेशों से संकर किस्मों का प्रवर्तन किया और पिछले कुछ
दशकों में गंगा श्रृंखला के संकर तथा किसान, जवाहर, अम्बर पूसा-कम्पोजिट नाम
से चर्चित कम्पोजिटों को विकसित करके उत्पादन बढ़ाया है। अभी हाल में पी.ई.एच.एम.
-3 नामक संकर किस्म मक्का उत्पादक क्षेत्रों में सफल हुई है। संस्थान द्वारा विकसित
तिलहनों और दलहनों की उच्च उपजशील किस्मों की बडे़ स्तर पर खेती की जा रही है। सरसों
की पूसा बोल्ड और जय किसान तथा चने की पूसा 256 किस्में बहुत लोकप्रिय हुई हंै। इस
तरह संस्थान द्वारा पोषाहार सुरक्षा में योगदान दिया जा रहा है। खाद्यान्नों की भांति
ही संस्थान ने विभिन्न तरह की सब्जियाँ, फूलों और फलो की किस्मों का विकास किया है। सब्जियांे की श्रेष्ठ किस्मों का विकास
किया है। सब्जियों की श्रेष्ठ किस्मों जैसे गाजर की पूसा केसर, भिंडी की पूसा सावनी, टमाटर की पूसा रूबी, बैगन की पूसा पर्पल लांग
तथा गोभी की पूसा स्नोबाल आदि किसानांे की लोकप्रिय किस्में है। सब्जियों की इन किस्मों
से देश में बीज उद्योग को बढ़ावा मिला है। उच्च सघनता आरोपण के लिए आम की संकर किस्म
आम्रपाली, गैर परम्परागत क्षेत्रों
के लिए अंगूर की पूसा उर्वशी किस्म और पपीते की किस्म पूसा नन्हा इस संस्थान की कुछ
उत्तम व लोकप्रिय किस्मंे हैं। साथ ही कटफ्लावर के रूप में इस्तेमाल व सुगंध के लिए
गुलाब, ग्लेडियोलस, गेंदे और गुलदाउदी की भी अनेक किस्में जारी हुई हैं।
रासायनिक उर्वरकों का दीर्घकालीन अनुप्रयोग; फसल प्रणाली अनुसंधान; जल संसाधनों और मृदा की प्रकृति
तथा उसकी उर्वरता का मानचित्रण;
नाशीजीवों का
जैविक नियंत्रण; नाशक जीवनाशी अपशिष्टों का
विश्लेषण और विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तनांे के अनुप्रयोग आदि क्षेत्रों में संस्थान
ने पूरे राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान किया है। समेकित कीट प्रबंधन की अवधारणा का मूलमंत्र
संस्थान के विख्यात कीट विज्ञानी डॉ. एसप्रध् ाान ने दिया था, जिसे बाद में राष्ट्रीय नीति के रूप में अपनाया गया।
संस्थान द्वारा वानस्पतिक नाशकजीवनाशी के रूप में नीम आधारित यौगिक रसायनों का कीटों
और नाशीजीवांे के विरूद्ध प्रयोग किया, जो समेकित कीट प्रबंधन के महत्वपूर्ण घटक के रूप मे ंसफल रहे है। पौधों द्वारा
उर्वरक नाइट्रोजन उपयोगिता के नियंत्रक के रूप में भी नीम-यौगिकों का उपयोग हुआ है।
ग्रामवासियों के लिए उपयोगी पूसा चैम्बर, पूसा बिन, बीज ड्रिल, आलू-भिंडी बुआई यंत्र, फीड ब्लाक मशीन आदि का डिजाइन और उनका विकास पूसा संस्थान ने किया है। वर्ष
1939 में गोबर गैस की खोज का श्रेय एस.वी.देसाई और डॉ. टी.डी. विस्वास को है। इस गैस
की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए संस्थान ने बायोगैस संयत्र का भी विकास किया।
आपके योगदान के लिए धन्यवाद! ConversionConversion EmoticonEmoticon