श्रेष्ट कर्म की प्रेरणा (महर्षि वाल्मीकि)
प्राचीन
युग कि बात है| एक रत्नाकर नाम का डाकू था| वह अपने परिवार का पालन-पोषण राहगीरों
को लूट कर करता था| रास्ते में राहगीरों को डरा-धमका कर उनसे माल छीन लेता था|
एक
दिन एक विचित्र घटना घटी| रत्नाकर एक सुनसान रास्ते पर किसी राहगीर का इंतजार कर
रहा था| कि कोई आये तो लूटपाट करें| कुछ समय पश्चात उस रास्ते से कुछ साधु-सन्यासी
गुजर रहे थे| डाकू रत्नाकर उनके सामने आकर उनका रास्ता रोककर बोला “रुको! तुम्हारे पास जो कुछ भी है, वह चुपचाप मुझे दे दो वरना मैं तुम्हारे
प्राण ले लूँगा|”
रत्नाकर की धमकियों से वे साधु-सन्यासी भयभीत नहीं
हुये| उन्होंने शांत स्वभाव के कारण उनसे शांतिपूर्वक कहा – “देखो
भाई, हम तो सन्यासी पुरुष है| हमारे पास कोई धन-दौलत नहीं है | सिर्फ शरीर पर
वस्त्र व हाथो में कमण्डल मात्र है| इनसे यदि तुम्हारा काम चलता हो तो खुशी से ले
लो; परन्तु हम तुमसे से जो प्रशन पूछे, उसका उत्तर सही-सही दे दो| तुम यह अपराधी
प्रक्रति का काम क्यों करते हो ? डाका डालना व लूटपाट करना तो पाप है| तब रत्नाकर
बोला कि, “मैं तो यह काम अपने
परिवार का पेट भरने के लिया करता हू|” साधुओ न पुनः पूछा कि, “क्या
तुम्हारे इस पाप कर्म में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देगे ? तुम जो पाप
कर्म कर रहे हो यो यह तो निश्चित है कि तुम्हे इसका फल अवश्य भुगतना पडेगा| तब
क्या तुम्हारे परिवार के लोग इस पाप के फल को भोगने में तुम्हारे सहयोगी बनेगे?
रत्नाकर बोला “मुझे पता नहीं|” साधुओ ने कहा, “तब तो तुम्हे यह पता लगाना चाहिए कि तुम जिनके लिए
पापकर्म करते हो, वे तुम्हारा साथ देगे या नहीं| तुम यह जानकारी करके हमें बताओ|”
तब रत्नाकर सोचने लगा कि ये सच कह रहे है; परुन्तु मैं
यह जानकारी लाने घर जाउगा तो यह साधू इतनी सी देर में भाग जाएगे| उसके मन
का संदेह जान कर साधुओ ने कहा कि तुम हमें तो किसी पेड़ से बाँध जाओ| तब रत्नाकर ने
साधुओ को एक पेड़ से बांध दिया और वह घर चला गया|
जब रत्नाकर घर पंहुचा तो उसने
परिवार के सभी सदस्यों से साधुओ वाला प्रशन पूछा| प्रशन का जवाब एक-सा मिला कि कोई
भी उसके कर्मो को भोगने को तैयार नहीं था सब ने कहा कि परिवार के पालन-पोषण की
जिम्मेदारी तुम्हारी है| यदि तुम आपराधिक काम करते हो दंड भी तुम्ही ही को भुगतना
पड़ेगा अथार्थ जो जैसा कर्म करेगा, उसका फल वैसा ही भोगेगा| घर वालो ने तो पापकर्म
करने को नहीं कहा था तो फिर पाप के भागीदार क्यों बने ?
अपने प्रश्न का यह उत्तर जानकर रत्नाकर को बड़ी निराशा हुई| साथ ही
अपनी करनी पर बहुत दुःख हुआ|
तब उसने सोचा कि जिनके लिए वह पाप कर रहा है, जब वे ही मेरे फल
में भागीदारी नहीं बनेगे, तो मैं ऐसा पापकर्म क्यों करू ?
तब वह वापस साधु-संन्यासियों के पास जाकर अपनी भूल पर काफी पछताया
तथा उसने संन्यासियो के कदमो में गिरकर क्षमायाचन कि तथा बुरा कर्म छोड़ने का
संकल्प लिया| उन्होंने संन्यासियो से सुमार्ग पर चलने का रास्ता जानना चाहा| तब
संन्यासियो ने उन्हें “राम” का उल्टा “मरा-मरा” का जाप करने को
कहा| वे “मरा-मरा” करके तपस्या करने लगे| उन्होंने इतनी कठोर
तपस्या की कि जहा वे तपस्या करने बैठे थे, उनके शरीर के चारो तरफ दीमको ने घर बना
लिया| कई वर्षो के पश्चात लोगो ने उनको देखा तो उनका नाम ही दीमको के नाम पर
वाल्मीकि रख दिया| वाल्मीकि संस्कृत भाषा में चीटी व दीमको को कहते है|
यही डाकू रत्नाकर जाकर बहुत बड़े तपस्वी मुनि
बने| उनके द्वारा लिखित रामायण महाग्रंथ कहलाया| इसी ग्रन्थ के कारण ऋषि वाल्मीकि
अमर हो गए| इसलिए उनको प्रथम कवि अथार्थ आदिकवि की संज्ञा दी गयी|
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