दंडक वन में दस वर्ष भरत अयोध्या लौट चुके थे। नगरवासी भी। सेना धूल उड़ाती हुई
वापस जा चुकी थी। कोलाहल थम गया था। दो दिन बाद चित्रकूट की परिचित शांति लौट आई थी।
पक्षियों की चहचहाहट फिर सुनाई पड़ने लगी थी। हिरण कुलाचें भरते हुए बाहर निकल आए थे।
राम पर्णकुटी के बाहर एक शिलाखंड पर बैठे थे। एकदम अकेले। विचारमग्न।केवल चार दिन की
दूरी पर था। कुछ सोचते हुए। चित्रकूट अयोध्या
से लोगों का आना-जाना लगा रहता। वे प्रश्न पूछते। राय माँगते। यह राजकाज में हस्तक्षेप
की तरह होता। चित्रकूट सुंदर-सुरम्य था। शांत था। पर राम वहाँ से दूर चले जाना चाहते
थे। उन्होंने मन बना लिया। चित्रकूट में न ठहरने का। इसका एक कारण और था। वहाँ रहकर
तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों का निर्णय। राम-लक्ष्मण ने उस वन से राक्षसों का सप़्ाफाया
कर दिया था। अब तपस्या में कोई बाध नहीं थी। लेकिन मुनिगण वन छोड़ना चाहते थे। कुछ
राक्षस मायावी थे। जब-तब आ ध्मकते थे। यज्ञ में बाध डालते थे। तीनों वनवासी मुनि अत्रि
से विदा लेकर चल पड़े। दंडक वन की ओर। चित्रकूट छोड़ दिया। दंडकारण्य घना था। पशु-पक्षियों
और वनस्पतियों से परिपूर्ण। इस वन में अनेक तपस्वियों के आश्रम थे। लेकिन राक्षस भी
कम नहीं थे। वे ऋषि-मुनियों को कष्ट देते थे। अनुष्ठानों में विघ्न डालकर। राम को देखकर
मुनिगण बहुत प्रसन्न हुए। मुनियों ने राम का स्वागत करते हुए कहा, “आप उन दुष्ट मायावी राक्षसों
से हमारी रक्षा करें। आश्रमों को अपवित्र होने से बचाएँ।” सीता दैत्यों के संहार के संबंध्
में दूसरी तरह सोच रही थीं। वे चाहती थीं कि राम अकारण राक्षसों का वध् न करें। उन्हें
न मारें, जिन्होंने
उनका कोई अहित नहीं किया है। राम ने उन्हें समझाया, “सीते! राक्षसों का विनाश ही उचित
है। वे मायावी हैं। मुनियों को कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिए मैंने ऋषियों की रक्षा की
प्रतिज्ञा की है।” राम, लक्ष्मण और सीता दंडकारण्य में दस
वर्ष रहे। स्थान और आश्रम बदलते हुए। वे क्षरभंग मुनि के आश्रम पहुँचे। आश्रम में बहुत
कम तपस्वी बचे थे। सभी निराश थे। उन्होंने राम को हंियों का ढेर दिखाकर कहा,
राजकुमार! ये ऋषियों
के वंफकाल हैं, जिन्हें राक्षसों ने मार डाला है। अब यहाँ रहना असंभव है।” सुतीक्ष्ण मुनि ने भी राम
को राक्षसों के अत्याचार की कहानी सुनाई। मुनि ने ही राम को अगस्त्य ऋषि से भेंट करने
की सलाह दी। ¯वध्याचल पार करने वाले वह पहले ऋषि थे। मुनि ने राम को गोदावरी नदी के तट पर जाने
को कहा। उस स्थान का नाम पंचवटी था। वनवास का शेष समय दोनों राजकुमारों और सीता ने
वहीं बिताया। पंचवटी के मार्ग में राम को एक विशालकाय गिद्ध मिला। जटायु। सीता उसका
स्वरूप देखकर डर गईं। लक्ष्मण ने उसे मायावी राक्षस समझा। वे धनुष उठा ही रहे थे कि
जटायु ने कहा, “हे राजन! मुझसे डरो मत। मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ। वन में तुम्हारी सहायता
करूँ गा। आप दोनों बाहर जाएँगे तो सीता की रक्षा करूँ गा।” राम ने जटायु को ध्न्यवाद दिया। उन्हें
प्रणाम करके आगे बढ़ गए। पंचवटी में लक्ष्मण ने बहुत संुदर कुटिया बनाई। मि‘ी की दीवारें खड़ी कीं। बाँस
के खंभे लगाए। कुश और पत्तों से छप्पर डाला। कुटिया ने उस मनोरम पंचवटी को और सुंदर
बना दिया। कुटी के आसपास पुष्पलताएँ थीं। हिरण घूमते थे। मोर नाचते थे। इस बीच राम
राक्षसों का निरंतर संहार करते रहे। वे जब भी आश्रमों पर आक्रमण करते, राम-लक्ष्मण उन्हें मार देते।
उन्होंने सीता को पकड़ लेने वाले राक्षस विराध् को मारा। वन से राक्षसों का अस्तित्व
लगभग मिटा दिया। तपस्वी शांति से तप करने लगे। एक दिन राम, लक्ष्मण और सीता कुटी के बाहर बैठे
हुए थे। लता-कुंजों को निहारते। उनके सौंदर्य पर मुग्ध् होते। तभी लंका के राजा रावण
की बहन शूर्पणखा वहाँ आई। राम को देखकर वह उन पर मोहित हो गई। उसने स्वयं को पानी में
देखा। विकृत चेहरा। मुँह पर झुर्रियाँ। वह बूढ़ी थी पर राम के मोह में आसक्त। उन्हें
पाना चाहती थी। उसने माया से संुदर स्त्राी का रूप बना लिया। शूर्पणखा राम के पास गई।
उनसे बोली, “हे रूपराज! मैं तुम्हें नहीं जानती। पर तुमसे विवाह करना चाहती हूँ । तुम मेरी
इच्छा पूरी करो। मुझे अपनी पत्नी स्वीकार करो।” राम ने मुसकराकर लक्ष्मण की ओर देखा।
अपना परिचय दिया। सीता की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये मेरी पत्नी हैं। मेरा विवाह हो
चुका है।” राम शूर्पणखा को पहचान गए थे। फिर भी उन्होंने उसका परिचय पूछा। शूर्पणखा ने झूठ
नहीं बोला। सच-सच बताया कि वह रावण और वंुफभकर्ण की बहन है और अविवाहित है। राम के
मना करने के बाद वह लक्ष्मण के पास गई। लक्ष्मण ने कहा, “मेंरे पास आने से तुम्हें कुछ नहीं
मिलेगा, देवी!
मैं तो राम का दास हूँ । मुझसे विवाह करके तुम दासी बन जाओगी।” लक्ष्मण ने शूर्पणखा को पुनः
राम के पास भेज दिया। दोनों भाइयों के लिए यह खेल हो गया। शूर्पणखा उनके बीच भागती
रही। क्रोध् में आकर उसने सीता पर झप‘ा मारा। सोचा कि राम इसी के कारण विवाह नहीं कर रहे हैं।
लक्ष्मण तत्काल उठ खड़े हुए। तलवार खींची और उसके नाक-कान काट लिए। खून से लथपथ शूर्पणखा
वहाँ से रोती-बिलखती भागी। अपने भाई खर और दूषण के पास। वे उसके सौतेले भाई थे। उसी
वन में रहते थे। शूर्पणखा की दशा देखकर खर-दूषण के क्रोध् की सीमा न रही। उन्होंने
तत्काल चौदह राक्षस भेजे। शूर्पणखा उनके साथ गई। राम जानते थे कि राक्षस बदला लेने
अवश्य आएँगे। वे तैयार थे। सीता को उन्होंने सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। लक्ष्मण के
साथ। राक्षस राम के सामने नहीं टिक सके। देखते ही देखते उन्होंने सबको ढेर कर दिया।
शूर्पणखा ने एक पेड़ के पीछे से यह दृश्य देखा। राम के पराक्रम से वह चकित थी। उसका
मोह और बढ़ गया। साथ ही क्रोध् भी बढ़ा। वह पुफफकारती हुई खर-दूषण के पास लौटी। इस
बार खर-दूषण राक्षसों की पूरी सेना के साथ चले। खर ने देखा कि आसमान काला पड़ गया।
घोड़े स्वयं धरती पर गिरकर मर गए। आकाश में गिद्ध मँडराने लगे। ये अमंगल के संकेत थे।
पर वह रुका नहीं। आगे बढ़ता गया। घमासान युद्ध हुआ। अंत में विजय राम की हुई। खर-दूषण
सहित उनकी सेना ध्राशायी हो गई। कुछ पिछलग्गू राक्षस बचे। वे जान बचाकर वहाँ से भाग
निकले। भागने वालों में एक राक्षस का नाम अवंफपन था। वह सीधे रावण के पास गया। लंकाध्पिति
को उसने पूरा विवरण बताया। अवं फपन ने कहा, राम कुशल योद्धा हैं। उनके पास विलक्षण
शक्तियाँ हैं। उन्हें कोई नहीं मार सकता। इसका एक ही उपाय है। सीता का अपहरण। इससे
उनके प्राण स्वयं ही निकल जाएँगे।” रावण सीता-हरण के लिए तैयार हो गया। वह महल से चला। रास्ते में
उसकी भेंट मारीच से हुई। ताड़का के पुत्र से। ताड़का का वध् राम ने पहले ही कर दिया
था। मारीच क्रोध्ति था। पर राम की शक्ति से परिचित था। उसने रावण को सीता-हरण के लिए
मना किया। समझाया। कहा, “ऐसा करना विनाश को आमंत्रण देना है।” रावण ने मारीच की बात मान ली। चुपचाप
लंका लौट गया। थोड़ी ही देर में शूर्पणखा लंका पहुँची। विलाप करती हुई। चीखती-चिल्लाती।
रावण को पूरी घटना की जानकारी थी लेकिन उसने शूर्पणखा को सुना। वह रावण को ध्क्किार
रही थी। फटकार रही थी। उसके पौरुष को ललकारते हुए शूर्पणखा ने कहा, फ्तेरे महाबली होने का क्या
लाभ? तेरे रहते
मेरी यह दुर्गति? तेरा बल किस दिन के लिए है? तू किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह गया है।” शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण
के बल की प्रशंसा की। सीता को अतीव सुंदरी बताया। कहा कि उसे लंका के राजमहल में होना
चाहिए। शूर्पणखा बोली, “मैं सीता को तुम्हारे लिए लाना चाहती थी। मैंने उन्हें बताया
कि मैं रावण की बहन हूँ । क्रोध् में लक्ष्मण ने मेरे नाक-कान काट लिए।” रावण फिर मारीच के पास गया।
खर-दूषण की मृत्यु से वह कुछ घबराया हुआ था। रावण ने मारीच से मदद माँगी। मारीच चाहता
था कि रावण सीता-हरण का विचार छोड़ दे। इस बार रावण ने उसकी नहीं सुनी। उसे डाँटा और
आज्ञा दी, “मेंरी मदद करो।” मारीच जानता था कि दोबारा राम के सामने पड़ने पर वह मारा जाएगा। राम उसे नहीं छोड़ेंगे।
रावण मारीच के मन की बात भाँप गया। उसने क्रोध् में भरकर कहा, फ्वहाँ जाने पर हो सकता है
राम तुम्हें मार दें। लेकिन न जाने पर मेरे हाथों तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।”
विवश होकर मारीच को
रावण का आदेश मानना पड़ा। रथ पर बैठकर रावण और मारीच पंचवटी पहुँचे। कुटी के निकट आकर
मायावी मारीच ने सोने के हिरण का रूप धरण कर लिया। कुटी के आसपास घूमने लगा। रावण एक
पेड़ के पीछे छिपा था। उसने तपस्वी का वेश धरण कर लिया था। सीता उस हिरण पर मुग्ध्
हो गईं। उन्होंने राम से उसे पकड़ने को कहा। राम को हिरण पर संदेह था। वन में सोने
का हिरण? लक्ष्मण
बड़े भाई की बात से सहमत थे। पर सीता के आग्रह के आगे उनकी एक न चली। सीता की प्रसन्नता
के लिए राम हिरण के पीछे चले गए। उन्होंने सोचा, फ्वन में इतने समय के प्रवास के दौरान
सीता ने कभी कुछ नहीं माँगा। उनकी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए।” कुटी से निकलते समय राम ने
लक्ष्मण को बुलाया। सीता की रक्षा करने का आदेश दिया। कहा, “मेंरे लौटने तक तुम उन्हें अकेला
मत छोड़ना।” लक्ष्मण ने सिर झुकाकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। सीता कुटी में थीं। लक्ष्मण धनुष
लेकर बाहर खड़े हो गए।
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