अरहर की खेती : किस्में, संकर, सिंचाई, बीज और रोग







दोस्तों आज मैं आप के साथ अरहर की खेती(arhar ki daal)  कैसे करे इसके बारे बहुत ही ज्यादा विस्तार से जानकारी शेयर कर रहा हु आप इस लेख में निम् टॉपिक को पढेंगे -

अरहर का उत्पादन

संकर तकनीकी

अरहर में संकर प्रजातियों की संभावनायें -

आनुवांशिक नरबंध्यता पर आधारित अरहर की संकर प्रजातियों का विकास

अरहर में संकर बीजोत्पादन की तकनीकी

नरबन्ध्य जनक का बीजोत्पादन:

Arhar ki kheti
 सस्य क्रियायें

अन्तराल सस्य क्रियायें:

सिंचाई:

फसल सुरक्षा:

अवांछित पौधों की छटनी:

फलियों की तुड़ाई:

पेड़ी:

बीज की उपज:

परागणकर्ता (पोलीनेटर) जनक का बीजोत्पादन:

संकर बीजोत्पादन

अरहर की किस्में:

फली मक्खी (मेलोनाग्रोमाइजा आब्टूसा) -

फली छेदक (हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा) -

फली तितली (लैक्पिडिस बोइटिकस)

पत्ती मोड़क (ग्रेफोलिटा क्रिटिका)

फली बग (क्लेविग्रेला जिबोसा) -

घुन (कैलोसोब्रुकस स्पीसीज)

फसल को कैसे बचायें ?

निबौली सत का प्रयोग

एकीकृत कीट नियंत्रण





अरहर की खेती भारत में तीन हजार वर्षो पूर्व से होती आ रही है किन्तु भारत के जंगलों में इसके पौधे नहीं पाये जाते है। अफ्रीका के जंगलों में इसके जंगली पौधे पाये जाते है। इस आधार पर इसका उत्पत्ति स्थल अफ्रीका को माना जाता है। सम्भवतया इस पौधें को अफ्रीका से ही एशिया में लाया गया है।
दलहन प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती है, लेकिन इनका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील कृषि विधियों का विकास करना होगा। पादप प्रजनन के नये तरीकों से संकर प्रजातियों का विकास किया जा रहा है। इससे दलहनों का सकल उत्पादन बढ़ने की प्रबल संभावनायें हैं।
अरहर एक विलक्षण गुण सम्पन्न फसल है। इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में सर्वाधिक किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसकी हरी फलियां सब्जी के लिये, खली चूरी पशुओं के लिए रातव, हरी पत्ती चारा और तना ईंधन, झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम लाया जाता है। इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके लाख भी बनाई जाती है। इसमें मांस की तुलना में प्रोटीन भी अधिक (21-26 प्रतिशत) पाई जाती है।
अरहर(arhar) का उत्पादन
दलहनी फसलों मे अरहर का स्थान क्षेत्रफल और पैदावार के आधार पर द्वितीय है, जबकि चने का स्थान प्रथम है, यह लगभग 32 लाख हैक्टर क्षेत्रफल में उगाई जाती है जिसका वार्षिक उत्पादन लगभग 22.40 लाख टन होता है। इसकी प्रजातियों में पकने की अवधि में भारी विविधता पाई जाती है। पकने की अवधि के आधार पर इसकी प्रजातियों को तीन समूहों में बांटा गया है: (1) अल्पावधि में पकने वाली (150 दिन तक), (2) मध्यावधि में पकने वाली (3) दीर्घावधि में पकने वाली (200 से 300 दिन तक)। इसी प्रकार से इसके पौधों के स्वरूप में भी भारी विविधता पाई जाती है, जैसे निर्धारित वृद्धि और सुगठित अर्ध फैलाव और फैलावदार। इन गुणों के कारण अरहर विभिन्न फसल चक्रों और फसल पद्धतियों के लिये एक आदर्श फसल है। सर्वेक्षणों में पाया गया है कि दीर्घावधि में पकने वाली अरहर की उत्पादकता सर्वाधिक होती है और उसके बाद क्रमशः मध्यावधि और अल्पावधि में पकने वाली प्रजातियों का स्थान आता है, लेकिन सभी प्रकार की प्रजातियों की औसत उत्पादकता मात्र 700 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर है जोकि अन्य फसलों की तुलना में बहुत कम है।
संकर तकनीकी
वर्ष 1911 में अमेरिका के शल नामक पादप अभिजनक ने संकर ओज तथ्य की खोज की। इस तथ्य के अनुसार संबंधित विभेदों के संकरण से प्राप्त प्रजातियां अपने जनकों की तुलना में अधिक ओजपूर्ण होती हैं। विश्व के पादप अभिजनकों ने इस तथ्य का परीक्षण सर्वप्रथम परपरागित फसलों में किया और मक्का, ज्वार, बाजरा और कुछ सब्जियों में संकर प्रजातियों का विकास किया। इसके बाद इस तथ्य का पता स्वयं और पाश्र्व परागित फसलों में लगाया गया और धान, कपास, अरहर और कुछ सब्जियों में संकर प्रजातियां विकसित की गयी। चूंकि अरहर में आनुवंशिक नर बन्ध्यता के कारण कीटों द्वारा परपरागण अधिक समय तक होता है और संकर ओज आर्थिक दृष्टि से दोहनयुक्त पाया गया। इन तथ्यों का दोहन करके उत्पादकता में भारी वृद्धि लाई जा सकती है।
अरहर में संकर प्रजातियों की संभावनायें -
अरहर की संकर प्रजातियों की उत्पादन क्षमता साधारण जातियों की तुलना में अधिक पाई जाती है।
अरहर की संकर प्रजातियों में आरंभ की वृद्धि में अधिक ओज पायी है जिसके कारण पौधे भूमि में टिक जाते हैं और वृद्धि आरम्भ कर देते है।
संकर प्रजातियों में जड़ मास अधिक विकसित होता है और मूसला जड़ भूमि में अधिक गहरी पायी जाती है, जिससे इनमें शुष्कावस्था को सहन करने की क्षमता पाई जाती है।
जिस भूमि में उकठा रोग का अधिक प्रकोप होता है उसमें साधारण प्रजातियों की तुलना में संकर प्रजातियां अच्छी तरह से पनपती है।
संकर प्रजातियों में वानस्पति भाग को पैदा करने के लिए और भी ओज पाया जाता है। अतः इसको चारे के काम भी लाया जाता है और तना ईंधन आदि में प्रयोग किया जा सकता है।
उन क्षेत्रों में जहां किसान कीमती उत्पाद जैसे बीज, उर्वरक और फसल सुरक्षा के रसायनों का प्रयोग करने के लिए सक्षम होते हैं, यह अधिक सफल है।
संकर बीज का उत्पादन करना एक तकनीकी कार्य है। अतः यह रोजगार पैदा करने में सहायक होगा।
अरहर की सं कर प्रजातियों का विकास और उनकी खेती करने से बीज उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।
आनुवांशिक नरबंध्यता पर आधारित अरहर की संकर प्रजातियों का विकास
सर्वप्रथम अरहर में आनुवांशिक नरबन्ध्यता अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रीसेट), पटानचेरू (आन्ध्र प्रदेश) में प्रजाति आई.सी.पी. 1596 जो अरहर में संकर प्रजनन के लिए एक मजबूत आधार माना जाता है। यह नरबंध्यता एक अप्रभावी जीन एमएस-1 द्वारा नियंत्रित होती है। इक्रीसेट में इस नरबंध्यता को शीघ्र पकने वाली प्रजाति प्रभातमें समावेश करके एम एस प्रभात डी टीनरबंध्य विभेद विकसित किया गया। इस विभेद को मादा जनक के रूप में प्रयोग कर कई संकर प्रजातियां विकसित की गई। विश्व की प्रथम अरहर संकर प्रजाति आई सी पी एच 8का विकास 1991 में हुआ। इसकी उत्पादकता मध्य भारत में प्रजाति आई सी पी एल-87 की तुलना में 30-40 प्रतिशत अधिक पाई गई। इस संकर प्रजाति के प्रसार का क्षेत्र गुजरात और महाराष्ट्र तक ही सीमित रहा। बीज उत्पादन में कठिनाई के कारण यह प्रजाति अधिक प्रचलित नहीं हो पाई।संकर अरहर के प्रचार में बाधायें यद्यपि संकर प्रजाति आई.सी.पी.एच.-8 के बाद, पाँच संकर प्रजातियों का विकास किया गया लेकिन बीज उद्योग इनको अपनाने में निम्न कठिनाइयों का सामना कर रहा है:
1. किसान संकर अरहर के बीजोत्पादन में फूलते हुये नर पौधों को खेत से निकालने में हिचकते हैं। यह कार्य उनकी दृष्टि में धर्म के विरूद्ध है।
2. जनक प्रजातियों के बीज का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होना।
3. संकर बीजोत्पादन तकनीकी का ज्ञान नहीं होना।
4. बीज उत्पादकों को संकर बीज का उचित मूल्य नहीं मिलना।
5. संकर और उनके जनकों की आनुवंशिक शुद्धता का परीक्षण पृथक मौसम में उगाकर करने में कठिनाई।
6. अवांछित पौधे निकालने के समय श्रमिकों का नहीं मिलना।
7. अन्य फसलों की संकर प्रजातियों के बीज की तुलना में अरहर के संकर बीज का अधिक लाभदायक
नहीं होना।
अरहर में संकर बीजोत्पादन की तकनीकी
संकर अरहर के प्रचलन में सबसे बड़ी बाधा उच्चकोटि का बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होना है। इसका मुख्य कारण इसके बीजोत्पादन की तकनीकी बीजोत्पादकों को पता नहीं है जोकि मक्का, ज्वार, बाजरा, सूरजमुखी, कपास आदि की संकर प्रजातियों के बीजोत्पादन से काफी भिन्न है:
अरहर में सकर बीज का उत्पादन निम्न तीन चरणों में सम्पन्न होता है:
(i)नरबंध्य जनक का बीजोत्पादन
(ii) परागणकर्ता (पाॅलीनेटर) जनक का बीजोत्पादन, और
(iii) संकर बीजोत्पादन
नरबन्ध्य जनक का बीजोत्पादन: अरहर में आनुवंशिक नरबन्ध्यता एकक अप्रभावी जीन से संचालित होती है। यह संगोत्र परागण (सीविंग) से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रहती है। संगोत्री परागण से अगले वर्ष संतति में पौधे नर जनन क्षम (मेल फरटायल) और नरबन्ध्य बराबर संख्या में पैदा होते है। नर जनन क्षम पौधों को उखाड़ने के बाद बचे हुये पौधे नरबन्ध्य होते हैं, जिनसे संकर बीज का उत्पादन होता है। इस बीज के उत्पादन में निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं।
खेती की उपयुक्तता: जिस खेत में नरबन्ध्य जनक का बीजोत्पादन करना हो उसमें पिछले वर्ष अरहर न उगाई गई हो, जिससे पिछले वर्ष के बीज से उगे हुये पौधे बीज शुद्धता में बाधा न डालें। इसके साथ ही साथ भूमि उपजाऊ हो, क्षारीय और अम्लीय न हो और पानी के निकास की समुचित व्यवस्था हो।
अलगाव (आइसोलेशन): जिस खेत में नरबन्ध्य जनक का बीजोत्पादन करना हो वह अरहर के
अन्य खेतों से या उसी नरबन्ध्य प्रजाति के खतों से जोकि शुद्धता का मानक प्रमाणीकरण के लिये पूरा न
करती हो, 200 मीटर की दूरी हो।
सस्य क्रियायें
भूमि की तैयारी: पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3 जुताईयां कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाना चाहिये जिससे मिट्टी भुरभुरी और समतल होजाए।
उर्वरक: 25 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस और 20 कि.ग्रा. गंधक प्रति हैक्टर की दर से बुआई से पहले डालना चाहिए। बीज को बाने से पहले राजोबियम की उन्नतशील प्रजाति से शोधित करना चाहिये, जिससे जमाव अच्छा होता है और नाइट्रोजन का संचय बढ़ जाता है।
बीज का स्रोत: नरबन्ध्य जनक का आधारीय बीज उस संस्था से खरीदें जो बीज प्रमाणीकरण संस्था से प्रमाणित हो।
बोने की विधि: पूरे खेत में नरबन्ध्य जनक को पंक्तियों में बोना चाहिये। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 से.मी. और पंक्ति के अन्दर पौधे से पौधे की दूरी 10-20 संे.मी. रखी जाती है। प्रत्येक स्थान पर 2-3 बीज बोने चाहिये। जिस समय पौधों में फूल आने वाले हो उस समय खेत के एक तरफ से पंक्ति संख्या 1, 8, 15, 23, 29 आदि चिन्हित कर दी जाती हैं जो नर जनक का काम करेगी। इनमें से नर जनक क्षम पौधों को नहीं निकाला जाता है। शेष पंक्तियों 2, 3, 4, 5, 6, 7, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 24, 25, 26, 27, 28 आदि मादा होंगी। इन पंक्तियों से नर जनन क्षम पौधों को जिनमें फूल और परागकोष पीले और परागकण युक्त होते हैं, उखाड़ देना चाहिये। शेष पौधे मादा जनक काम करेंगे। इनका फूल हल्का पीला और परागकोष सफेद, पारभाषी और परागकण विहीन होते है।
बीज दर: 30 कि.ग्रा./हैक्टर
अन्तराल सस्य क्रियायें: खेत खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिये। इसके लिए एक निराई या गुड़ाई बुआई के 30 दिन बाद करनी चाहिये। बुआई के 40-50 दिन बाद पंक्तियों के बीज कल्टीवेटर से नाली बनाने से बीच के खरपतचार नष्ट हो जाते हैं, मिट्टी में नमी का संचय होता है और सिंचाई व पानी के निकास में सुविधा रहती है। जहां श्रमिक उपलब्ध न हो वहां बुआई के 72 घंटे तक लासो या पैडीमिथलीन नामक खरपतवारनाशक दवा का छिड़काव 4 लीटर/हैक्टर की दर से 800 लीटर पानी में घोलकर करना चाहिये। इससे फसल की आरम्भिक बढ़वार में खरतपवार नियंत्रित रहते हैं।
सिंचाई: बरसात के मौसम में जिस समय लम्बी अवधि तक पानी नहीं बरसता है आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिये। रबी के मौसम में 30-40 दिन के अन्तराल से सिंचाई करनी चाहिये।
फसल सुरक्षा: फली बेधक और फली मक्खी अरहर के प्रमुख कीट है। इनके नियंत्रण के लिये फूल आने से पहले इन्डोसल्फान कीटनाशक दवा का छिड़काव 1.25 लीटर/है. की दर से 800 लीटर पानी में घोलकर करना चाहिए। जिस समय फसल में फूल और फली आना आरंभ हो जायें इस दवा का छिड़काव नहीं करना चाहिये, जिससे परागण करने वाले कीट नष्ट न हो जायें।
 अवांछित पौधों की छटनी: नर जनन क्षम पौधों को जिनके फूल परागकोष पीले होते हैं मादा पक्तियों (2, 3, 4, 5, 6, 7, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 24, 25, 26, 27, 28 आदि) से निकाल देना चाहिए। जिन पौधों में हल्के पीले फूल हो और परागकोष सफेद, परभाषी और परागकण से विहीन हो, को नहीं निकालना चाहिये।
फलियों की तुड़ाई: फलियों की तुड़ाई मादा पंक्तियों (2, 3, 4, 5, 6, 7, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 24, 25, 26, 27, 28 आदि) से पकने के बाद करनी चाहिये। दूसरी और तीसरी तुड़ाई भी की जा सकती है यदि भूमि में नमी हो। इन फलियों से सूखने के बाद बीज निकाल लेना चाहिये। यह बीज आधारीय बीज होगा जोकि पुनः नरबन्ध्य प्रजाति को बीज और संकर बीजोत्पादन में काम मे लाया जाता है।
पेड़ी: नरबन्ध्य जनक से फलियों की तुड़ाई करने के बाद पौधों को खेत में छोड़ दिया जाता है। पंक्तियों के बीच गुड़ाई करके 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन और 40 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर की दर से मिट्टीमें मिला दिया जाता है। इसके बाद 20-30 दिनों के अन्तराल से सिंचाई करते रहना चाहिये। इस विधि में बीज और समय की बचत हो जाती है।
बीज की उपज: 10-12 क्विंटल/हैक्टर
परागणकर्ता (पोलीनेटर) जनक का बीजोत्पादन: परागणकर्ता वह जनक है जिसमें नर जनन क्षम पौधे होते हैं जो संकर बीज उत्पादन में काम लाया जाता है। इसके बीजोत्पादन में निम्न कदम  उठाये जाते हैं।
खेत की उपयुक्तता: जैसा कि नरबन्ध्य जनक के बीजोत्पादन के लिये।
अलगाव: जैसा कि नरबन्ध्य जनक के बीजोत्पादन के लिये।
सस्य क्रियायें
भूमि की तैयारी: उर्वरक की मात्रा व प्रयोग विधि, बीज का स्रोत, अन्तराल सस्य क्रियायें, सिंचाई
और फसल सुरक्षा के कार्य उसी तरह से नरबन्ध्य जनक के बीजोत्पादन में।
बुआई की विधि: बुआई पंक्तियों में की जाती है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10-20 सें.मी. रखी जाती है।
अवांछित पौधों को निकालना: बीज की शुद्धता रखने के लिए अवांछित और रोग ग्रसित पौधों
को फूल आने से पहले निकाल देना चाहिए। फली आने के बाद उनके रंग और धारियों के आधार पर अवांछित पौधों को निकाल देना चाहिए।
फसल क कटाई: फलियों के पकने के बाद पौधों को काट लिया जाता है। पौधों के सूखने के बाद फलियों के बीज निकाल लिये जाते है। यह आधारीय बीज होता है।
संकर बीजोत्पादन
अलगाव: बीज में शुद्धता बनाये रखने के लिये वह खेत जिसमें संकर बीजोत्पादन के लिए फसल
उगानी हो अन्य अरहर के खेतों से या वही परागणकर्ता जनक जो कि प्रमाणीकरण के लिए शुद्धता नहीं रखते हों कम से कम 200 मीटर की दूरी पर होना चाहिये। यदि बीजोत्पादन उन दो संकर प्रजातियों का करना हो जिनका परागणकर्ता जनक एक ही हो और नरबन्ध्य जनक अलग-अलग हो तो उनके खेतों के बीच की दूरी केवल 5 मीटर होनी चाहिये।
संस्य क्रियायें
जैसा कि नरबन्ध्य जनक के बीजोत्पादन के लिये अपनाई जाती है।
बुआई की विधि: एक पंक्ति परागणकर्ता, उसके बाद 6 पंक्तियां नरबन्ध्य (मादा) जनक की बोई जाती है। इसी क्रम से पूरे खेत की बुआई की जाती है। इस प्रकार पंक्ति संख्या 1, 8, 15, 23, 29, 36 आदि परागण जनक की और 2, 3, 4, 5, 6, 7, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22 आदि मादा जनक की होगी। मादा जनक में प्रति थाला 2-3 बीज तथा नर जनक में प्रतिथाला 1 बीज बोया जाता है।
अन्तराल: पंक्ति से पंक्ति: 60 सें.मी पौधा से पौधा: मादा जनक: 5 संे.मी., नर जनक: 20 सें.मी
बीजदर: मादा जनक: 40 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर, नर जनक: 4 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर।
अवांछित पौधों को निकालना
·       फूल आने से पहले अवांछित पौधों को निकाल दिया जाता है। फली आने पर उनके रंग और धारियों के
आधार पर भी अवांछित पौधों को निकाल दिया जाता है।
·       नर जनन क्षम पौधों को फूल व पराग कोष के रंग (पीला) और पराग कणों से भरे होने के आधार पर निकाल दिया जाता है। बचे हुए पौधें नरबन्ध्य होते हैं। जिनके परागकोष सफेद, पारभाषी और परागकणविहीन होते हैं।
·       जिन पौधों में देर से फूल आते हैं उनको भी निकाल दिया जाता है।
·       अवांछित पौधों को निकालने की क्रिया 5-7 दिनों में पूरी कर लेनी चाहिये।
नर जनक
·       फूल आने से पहले अवांछित पौधो को निकाल देना चाहिए।
·       जो फलियां बन गई हो उनको तोड़ दिया जाता है जिससे परागकणों की उपलब्धता लगातार बनी रहती है।
कटाई: उसी प्रकार जिस प्रकार नरबन्ध्य जनक के बीजोत्पादन में की जाती है।
बीज की पैदावार: 6-6 क्वि./है. प्रमाणित बीज।
अरहर की किस्में: अरहर की फसल में मुख्य किस्में:
(i) आई.सी.पी.एच.-8: जिसमें एम.एस. प्रभात तथा आईसीपीएल 161 दोनांे को मिलाकर आईसीपीएच-8 का निर्माण किया है। इस किस्म का उत्पति स्थल इक्रीसेट हैदराबाद है। यह किस्म 115-135 दिनों में पककर तैयार होती है तथा इसका औसत उत्पादन 15-18 क्विंटल प्रति हैक्टर रहता है। यह किस्म गुजरात, महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश के लिए अधिक उपयोगी मानी जाती है।
(ii) पी॰पी॰एच॰-4: इस किस्म में मादा जनक एम.एस. प्रभात तथा नर जनक एएल 688 को रखा गया। इस किस्म का विकास पंजाब कृषि वि.वि. लुधियाना से 1994 में किया गया। इसकी उपज 15-18 क्विंटल प्रति हैक्टर तथा 155-160 दिनों में पककर तैयार होती है।
(iii) सी॰ओ॰पी॰एच॰-1: इस किस्म के जनकों में मादा एम एस टी-21 तथा नर जनक आई.सी.पी.एल. 87109 है। इस किस्म का जनक तमिलनाडु कृषि विवि. को माना गया है। इस किस्म को 1994 में निकाला गया।
(iv) सी॰ओ॰पी॰एच॰-2: इस किस्म में मादा जनक एमएससीओ-5 तथा नर जनक आई.सी.पी.एल. 83027 को रखा गया है इसको तमिलनाडु कृषि विवि. द्वारा 1997 में विकसित किया गया। यह 120-130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है।
(v) ए॰के॰पी॰एच॰-4104: इसमें मादा जनक एम.एस प्रभात तथा नर जनक एके 101 को रखा गया। इस किस्म को पंजाब राम देशमुख कृषि विवि. अकोला द्वारा निकाला गया। इसका उत्पादन 20 क्विंटल प्रति हैक्टर तक रहता है।
(vi) एके पी.एस.-202: इस किस्म का उन्नत बीज पंजाब राव देशमुख कृषि विवि. अकोला द्वारा विकसित किया गया। इस किस्म में ए.के.एम.एस.-2 को मादा तथा एके-2 को नर जनक बनाया गया है। इसकी अनुमानित उपज 1998 में 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर निकाली गयी।
फली मक्खी (मेलोनाग्रोमाइजा आब्टूसा) -
उत्तर भारत में फली मक्खी का प्रकोप सर्वाधिक होता है। इस कीट द्वारा अकेले 70-80 प्रतिशतफलियां क्षतिग्रस्त हो जाती है। यह कीट पूरी तरह से अरहर की फली में छिपा रहता है। तात्पर्य यह है किइस कीट की सभी अवस्थायें, अंडा, गिडारें और प्यूपा फली के अंदर ही रहती है। पूरा जीवन चक्र फली केभीतर ही पाया जाता है। अण्डे से जब गिडार निकलती है तो यह रंेगकर अरहर के दाने पर चली जाती हैऔर दाने में छेद करके भीतर प्रवेश कर जाती है तथा भीतर ही भीतर दाने को खाकर क्षति पहुंचाती है। पूर्णविकसित गिडार दाने पर नालीनुमा जगह बनाकर दाने के बाहर आ जाती है और फली की दीवार को फलीमक्खी के निकलने पर जिसमें एक पतली झिल्ली शेष बचती है, काट देती है। तत्पश्चात् यह गिडार प्यूपाके रूप में परिवर्तित हो जाती है। प्यूपा से एक काले रंग की छोटी-सी मक्खी निकलकर उस झिल्ली को धाक्का देती है जिससे झिल्ली फट जाती है और मक्खी बाहर निकल आती है। पूरा जीवन चक्र लगभग पांचसप्ताह में पूरा होता है। नर तथा मादा मक्खियों के सम्भोग के लगभग दो तीन दिन बाद मादा मक्खी अरहरकी कोमल फलियों पर फली की भीतरी दीवार पर अपने अण्डे रोपती है। अंडे से 2-3 दिन के पश्चात् गिडारेंनिकलती हैं और दानों पर जाकर उनको क्षतिग्रस्त करती हैं। एक मक्खी लगभग 20-25 अण्डे देती है। एकदाने पर प्रायः एक ही गिडार पायी जाती है। क्षतिग्रस्त दाने दाल बनाने के काम नहीं आते और इन्हें खानेके उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। ये दाने जानवरों को ही खिलाये जा सकते है।
फली छेदक (हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा) -
हेलिकोवर्पा का प्रकोप अरहर की फसल पर पूरे भारत में जहां अरहर की खेती होती है, पर होता है। यह कीट अरहर की फलियों, फूलों एवं पत्तियों को क्षतिग्रस्त करता है। यदि फसल पर फूल और फली उपलब्ध नहीं होते हैं तो यह कोमल पत्तियों को खाकर क्षति पहुंचाता है। इस कीट की मादा पतंगा अपने अंडे अरहर की फलियों, फूलों और कोमल फलियों पर अलग-अलग एक एक कर देती है। अण्डे आकर में गोलाकार होते हैं जिनमें से 2-3 दिनों में गिडारें निकलती है। ये गिडारें 4-5 दिन तक फलियों के ऊपरी भाग को खुरचकर खाती हैं। तत्पश्चात् फलियों से दाने के ऊपर छेद बनाती है तथा उसमें अपना अग्रभाग घुसेड़कर दानों को खाती हैं। प्रति गिडार 15-20 दानों को खाकर क्षति पहुंचाती है। यह कीट 12-15 दिन तक गिडार अवस्था में रहता है। तत्पश्चात् प्यूपा बनता है। प्यूपा बनने के लिये पूर्ण विकसित गिडारे जमीन में दरारों में चली जाती हैं और प्यूपा बनाती है। प्यूपा से फसल को कोई हानि नहीं होती है। प्यूपा से 8-10 दिन में पतंगा निकलती है। मादा पतंगा प्यूपा से निकलने के 2-3 दिन पश्चात् पौधों पर अंडे देती हैं जिससे यह गिडारें निकलती हैं। इस प्रकार इस कीट का जीवन चक्र 22-28 दिन का होता है। उत्तर भारत में जाड़ो में तापमान कम होने पर प्यूपा से पतंगा निकलने में 100-125 दिन लगते हैं अनुकूल तापमान आने पर जब फलियां फसल पर उपलब्ध होती है पतंगे अण्डे देती हैं।
फली तितली (लैक्पिडिस बोइटिकस)
फली भेदकों में फली तितली मुख्यतः फली और पुष्पों को क्षतिग्रस्त करती है। मादा तितली छोटे, नीले और चपटे अण्डे एक एक करके अलग- अलग फलियों पर देती है। 2-3 दिनों में अंडों से गिडारें निकलती हैं जो फलियों और पुष्पों में छिद्र बनाकर भीतर प्रवेश कर जाती है और उन्हें भीतर ही भीतर खाकर फली बनने योग्य नहीं छोड़ती हैं। तत्पश्चात् कोमल फलियों और पुष्पों में छिद्र बनाकर भीतर प्रवेश कर जाती है और उन्हें भीतर ही भीतर खाकर फली बनने योग्य नहीं छोड़ती हैं । तत्पश्चात् कोमल फलियों पर जाकर उन पर छिद्र बनाकर दानों को खा जाती हैं। इसकी गिडारें आकार में चपटी, हरे और भूरे रंग की होती हैं। इनके द्वारा निर्मित छिद्र बड़े होते है। प्रोढ़ गिडारे प्यूपा बनने के लिये मिट्टी अथवा पौधों के कोटरों में चली जाती हैं और वही प्यूपा बनाती हैं। पूरा जीवन चक्र लगभग पांच सप्ताह में पूरा होता है।
पत्ती मोड़क (ग्रेफोलिटा क्रिटिका)
इस कीट का पतंगा बहुत छोटा तथा भूरे रंग का होता है। मादा पतंगा अपने अण्डे पत्तियों के कलियोंतथा कोमल पत्तियों पर देती है। 2-3 दिनों में अंडों से गिडारे निकलती है जो हल्के पीले रंग की होती है,गिडारें शिखर पत्तियों को मोड़करजाल बना लेती है और उसके भीतर खाती रहती हैं। इस कीट द्वारा क्षतिपौध अवस्था से लेकर फूलों और फलियों तक होती है।
फली बग (क्लेविग्रेला जिबोसा) -
इस कीट के प्रौढ़ और वयस्क फलियों पर दानों से रस चूसकर दानों को क्षति पहुंचाते हैं। चूसे हुये दाने सिकुड़ कर काले हो जाते हैं। ये दाने न तो बीज के लिये और न ही मनुष्य के खाने के उपयुक्त होते हैं। यह कीट कत्थई भूरे रंग का होता है। मादा बग समूह में फलियों पर गुच्छों में अण्डे देती है। 3-4 दिनों में अंडों से बच्चे निकलते हैं जो समूह में फलियों पर रस चूसते पाये जाते हैं। इसका जीवन चक्र लगभगचार सप्ताह का होता है।
घुन (कैलोसोब्रुकस स्पीसीज)
घुन या जिसको ब्रुकीड भी कहते हैं, अरहर के दानों को खेत से लेकर गोदाम तक क्षति पहुंचाते हैं। यह कीट खेतों में अरहर पर लगभग पकी हुई सूखी फलियों को क्षति पहुंचाता है। मादा कीट फलियों पर सफेद रंग के अंडे देती है। इन अंडों से गिडारें निकलकर फलियों में छिद्र बनाकर दनों पर जाकर दानों में छिद्र बनाकर अंदर ही अंदर खाती है। गोदामों में मादा कीट दानों पर सफेद रंग के अंडे देती हैं। गिडारे अंडों से निकलकर दानों में छिद्र बनाकर प्रवेश कर जाती हैं तथा भीतर ही भीतर खाती रहती हैं। बेलनाकार छिद्र जो साफ-सुथरा होता है से वयस्क कीट बाहर निकलता है। इनका पूरा जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह का होता है।
फसल को कैसे बचायें ?
विलम्ब से पकने वाली या मुख्य अरहर को आर्थिक क्षति पहुंचाने वाले कीट लगभग आधे दर्जन हैं जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। यदि इन कीटों का समुचित नियंत्रण न किया गया तो फसल की पैदावार और लाभ में भारी कमी हो जाती है। कीट प्रकोप यद्यपि पौधा उगने के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु आर्थिक क्षति फूल और फली बनने के साथ ही फसल की फली अवस्था या उसके उपरांत होने वाले कीट प्रकोप से ही होती है। अतः कीटों के प्रकोप की प्रति सजगता रखने के लिये यौन आकर्षण जाल का प्रयोग किया जाता है। यह जाल फली भेदक के लिये बहुत ही उपयोगी है। इस जाल में मादा पतंगों की गंध वाला पदार्थ रख देते हैं जिसकी गंध पाकर नर पतंगे दूर-दूर से आकर इस जाल में फंस जाते हैं। 8-10 यौन आकर्षण जाल प्रति हैक्टर पर्याप्त होते हैं। यदि फलियाँ बनने के समय प्रति दिन 4-5 पर पतंगे प्रति जाल 3-4 दिनों तक फंसे तो यह संकेत मिलता है कि फसल पर फली भेदक की संख्या क्षति पहंुचाने वाली अवस्था से अधिक होने वाली है तथा निदान की अवाश्यकता पड़ सकती है। फली मक्खी के प्रकोप की गंभीरता को जानने के लिये फलियों की सूक्ष्मता से जांच करनी चाहिये। यदि 5-10 प्रतिशत दानों पर आक्रमण दिखे तो समझना चाहिये कि इनकी संख्या आर्थिक क्षति पहंुचाने की हो गई। पौधों का सूक्ष्म निरीक्षण सप्ताह में एक बार अवश्य करना चाहिये तथा कीटों की संख्या क्षति पहंुचाने की स्थिति से अधिक हो जाने पर उनकी रोकथाम उचित कीटनाशी दवाओं द्वारा करनी चाहिये।
यद्यपि फसल की क्षति कम करने के लिये अवरोधी प्रजातियों का लगाना बहुत ही अच्छा है किन्तु मध्यम समय में पकने वाली बहारप्रजाति को समय पर बोकर किसी हद तक फसल को कीट प्रकोप से बचाया जा सकता है। कीटनाशी दवायें हानिकारक कीटों को मारने के साथ-साथ लाभकारी जीवों और कीट परजीवियों को भी मार देती है। अतः ऐसी कीटनाशी दवाओं और विधि का उपयोग करना चाहिये जो लाभकारी कीटों को कम से कम हानि पहुंचा सकें। इस प्रकार के रसायनों में नीम की निबौली का सत, नीम से प्राप्त अन्य पदार्थ तथा एन.पी.वी. विषाणु हैं। ये रसायन कुछ विशेष कीटों पर ही असर करते हैं और यदि एक समय में अनेक कीटों का प्रकोप होता है तो कुछ प्रकार के कीट इन रसायनों के नियंत्रण के असर से वंचित रह जाते हैं।
अरहर में फलियां बनने के उपरांत दाने भरने के समय चना फली भेदक, फली मक्खी और फली तितली का प्रकोप होता है। इनके रोकथाम के लिये नीम की निबौली और एंडोसल्फान का छिड़काव करना चाहिये। तीसरी बार और आवश्यकता प्रतीत हो तो निबौली घोल द्वारा उपचार किया जाना चाहिये।
निबौली सत का प्रयोग
एक कि.ग्रा. नमी के दानों के गिरी को कूटकर कपड़े की पोटली में रखकर 20 लीटर पानी में 24 घंटे रखें व बाद में दबाकर सत निकाल लें व बची गिरी को फेंक दें। इस घोल में 200 ग्राम  साधारण साबुनकाटकर मिला दें। इस मिश्रित घोल के छिड़काव से फली भेदकों का नियंत्रण करें। यह सरल, सस्ता और निरापद विधि है। घोल की मात्रा आवश्यकतानुसार तैयार करें। उपरोक्त  मात्रा से 5 प्रतिशत घोल तैयार होता है।
एकीकृत कीट नियंत्रण
1. फली भेदक की सामयिक जानकारी हेतु 4-4 यौन आकर्षण जाल प्रति हैक्टर की दर से लगायें और जब 4-5 पतंगे प्रति जाल मिलें तो कीट नियंत्रण की तैयारी करें। दूसरी विधि यह भी है कि जब प्रति पौधा एक गिडार मिले तो नियंत्रण करें।
2. फसल की बुआई समय से करे इससे कीटों का प्रकोप कम होता है।
3. कीट अवरोधी फसल बोनी चाहिये। बहार या बहार जैसी प्रजाति जिसमें मार्च तक दाने कड़े हो जायें का चयन करना चाहिये।
4. प्रथम बार एंडोसल्फान 0.07 प्रतिशत तथा द्वितीय बार 15 दिन के उपरान्त डाइमिथोएट 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिये।
5. एन.पी.वी. (वाइरस) 350 फली भेदक गिडार समतुल्य प्रति हैक्टर का छिड़काव करना चाहिये।
6. उपरोक्त विधि द्वारा तैयार किया हुआ निबौली के सत का प्रयोग करना चाहिये।
अरहर के दानों को अच्छी तरह सुखाकर ही भंडारण करें। संभव हो तो दाल बनाकर भंडारण करें। दालों में कीटों का प्रकोप कम होता है। बीज के लिये रखे हुये अनाज में नीम/महुआ का तेल 10 ग्राम/किग्रा. की दर से मिलाया जा सकता है।


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