भारत में
क्षे़त्रफल की दृष्टि से ज्वार का तीसरा प्रमुख स्थान है। ज्वार को बारानी
क्षेत्रों का मुख्य
अन्न माना गया
है। भारत के दक्षिण एवं मध्य भागों जहाँ पर बारानी खेती होती है ज्वार मुख्य खाद्य
अन्न है। उत्तरी भारत
में ज्वार की फसल खरीफ में तथा दक्षिण भारत में इसकी खेती रबी एवं खरीफ दोनो ऋतुओं में की जाती है। ज्वार की फसल का उत्पादन
पशुओं को खिलाने के चारे के लिए किया जाता है ज्वार का उपयोग चारे के रूप में सूखा कर तथा हरे पौधों
का साइलेज बनाकर आहार के लिए किया जाता है। इसके शुष्क दाने में 11 प्रतिशत प्रोटीन 1.8 प्रतिशत वसा, 1.9 प्रतिशत खनिज, लवण तथा 74 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेटस होते है। ज्वार में पायी जाने
वाली प्रोटीन में अमीनों अम्लों की मात्रा 1.40 से 2.80 प्रतिशत तक पाई जाती है। जो
पोष्टिकता की दृष्टि से बहुत कम है। अमीनों अम्लों में ल्यूसीन को मात्रा 7.4
से 16 प्रतिशत तक होने के कारण अधिक ज्वार खाने वाले व्यक्ति में पैलाग्रा (Pellagra) नामक रोग होने की सम्भावनाएं रहती है। ज्वार के दानों से बीयर,
एल्कोहल आदि तैयार किये जाते है। इसके आटे का
जिप्सम बोर्ड बनाने के समय अडहेसिव के रूप में काम लिया
जाता है। ज्वार के पौधों
की कच्ची अवस्था में घुरिन नामक तत्व पाया जाता है जिससे हाइड्रोसायनिक अम्ल उत्पन्न होता है। पौधों
की कच्ची अवस्था में हाइड्रोसायनिक अम्ल के अधिक बनने के कारण इसके कच्चे पौधों को पशुओं को
नहीं खिलाना चाहिए। पौधों में वृद्धि के
साथ-साथ तथा अधिक सिंचाई के साथ हाइड्रोसायनिक अम्ल की मात्रा कम होती चली जाती है। इस कारण
पक्की हुई ज्वार के पौधों को ही चारे के काम लिया जाना चाहिए। ज्वार के उत्पत्ति स्थल
के बारे में अलग-अलग मत रखे गये है। डी कानडोल1884 तथा हुकर 1897 के अनुसार ज्वार का उत्त्पति स्थल अफ्रीका है। वर्ष 1937 के अनुसार इसकी उत्पत्ति स्थल भारत तथा अफ्रीका दोनों देश है।
जलवायु:-
भारत में ज्वार
का कुल क्षेत्रफल लगभग 1 करोड़ 35 लाख हैक्टेयर भूमि एवं वार्षिक
उत्पादन 1 करोड़ 30 लाख टन के लगभग आंका गया। ज्वार की खेती महाराष्ट्र,
कर्नाटक,
आन्ध्र प्रदेश
तथा मध्यप्रदेश में अधिक की जाती है। ज्वार की खेती के लिए गर्म जलवायु की
आवश्यकता रहती
है। 30 से.मी. से 100 से.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्वार की
खेती आसानी से की जा
सकती है। ज्वार
की फसल समुद्री किनारे से 1000 मीटर तक की
ऊँचाई तक के स्थानों पर आसानी
से की जा सकती
है। बीज के अंकुरण के लिए 15-20 डिग्री से. ताप
आवश्यक होता है किन्तु पादप
वृद्धि के लिये 25-300 सेन्टीग्रेट ताप उचित माना जाता है यदि तापमान
150 सेन्टीग्रेट से कम तथा
400सेन्टीग्रेट से
ऊपर जाता है तो पौधों की वृद्धि पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
मृदा ज्वार की
खेती के लिए दोमट, मृदा जिसमें जल
निकास की सुविधाऐं हो अच्छी मृदा मानी गयी
है। ज्वार की फसल
प्राय सभी मृदाओं में की जा सकती है। जिनकी पी.एच. 6.0 से 8.5 के मध्य
हो।
उन्नत
किस्में:- किस्में सी.एस.एच. 1,5,6,9,10,11,13 तथा 14। इन किस्मों की लम्बाई लगभग 90 से
110 दिनों तक पककर
तैयार होने की आंकी गयी है। इनकी औसत उत्पादन 40-50 क्विंटल प्रति
हैक्टेयर है।
इसके अलावा एस.पी.एच 486 एवं एस.पी.एच. 388 भी उन्नत किस्में है। चारे वाली
किस्मों में
सी.एस.वी. 10,11,13 तथा 15 एवं एस.पी.वी. 462, 475, 235 तथा 245 प्रमुख किस्में है।
रबी के लिए ज्वार की किस्में - के किस्में CSH-13-R12-R और 8.और SPH-677, CSH-10,5
तथा 9
चारे
के लिए ज्वार की किस्में:- किस्में पूसा
चरी-9, पूसा चरी-23, राजस्थान चरी-1,2 और 3, एचसी.
171, 260, एम.पी.चरी,
यू.पी.चरी-6 आदि
खेत
का चुनाव तथा तैयारी - ज् ज्वार की
खेती के लिए ऐसे खेतों का चयन करना चाहिए जिनमें
जल निकास की
समस्या नहीं हो। ज्वार की फसल के लिए खेत में गहरी जुताई कर, मिट्टी को अच्छी
तरह खाद
(एफ.वाई.एम.) मिला देना चाहिए। इसके बाद हेरो अथवा देशी हल से मिट्टी उथल पुथल
कर, मृदा को पाटा फेर कर समतल किया जाता है।
बोआई तथा बीज -
बोआई के लिए उत्तर भारत में जुलाई माह के मध्य तक उपर्युक्त समय माना
गया है। एक
हैक्टेयर जमीन के लिए 12-15 किलोग्राम ज्वार
बीज की मात्रा पर्याप्त होती है। बीजों
को बुआई से पूर्व
एग्रोसन जी.एन. या सेरेसान या कारबेन्डाजिम दवाओं में से कोई भी एक को 2
ग्राम पाउडर के
साथ उपचारित कर लेना चाहिए। बी आई.सीड ड्रिल या देशी हल से बुआई करते
समय कतार से कतार
की दूरी 30-40 सेमी तथा पौध से
पौधे की दूरी 10-15 सेमी रखी जाती
है।
बीज की गहराई 4-5 सेमी रखी जाती है। पौधों की बोआई के 25-30 दिन बाद 10-15 सेमी की
दूरी से
सुव्यवस्थित किया जाना उचित रहता है।
खाद
तथा उर्वरक:- ज्वार की सिंचित
फसल में मृदा के परीक्षण के आधार पर बुआई के समय 60
किलो नाइट्रोजन 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश उर्वरक मृदा में मिलाना
चाहिए। इसके
पश्चात आवश्यकतानुसार यूरिया उर्वरक से नाइट्रोजन दिया जाना उचित माना गया
है। कुल
नाइट्रोजन में से आधी बुआई के समय तथा शेष आधे को दो भागों में विभाजित कर 30
दिनों के अन्तराल
से दिया जाना चाहिए।
सिंचाई:- सिंचाई ज्वार की अच्छी पैदावार लेने के लिए
सिंचाई एवं जल निकास की उचित व्यवस्था करना
आवश्यक हो जाता
है। यदि पानी की फसल को आवश्यकता है, तो सिंचाई की व्यवस्था होनी चाहिए
जिससे फसल की
पैदावार बनी रहे। पौधों में फूल तथा दाना बनने के समय पानी की अधिक
आवश्यकता रहती है
उस समय यदि वर्षा नहीं होती है तो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पौध्
में वर्षा का जल
अधिक लम्बे समय तक नहीं ठहरना चाहिए। अधिक लम्बे समय तक पानी रहने
से पौधों में
श्वसन क्रिया प्रभावित होती है, जिससे पैदावार
में कमी आ सकती है।
खरपतवार:- पौधों की छोटी अवस्था में अन्य कई अवांछनीय
पौधें निकल आते है। बोआई के
20-25 दिनों बाद फसल
के बीच-बीच में इन अवान्छित पौधों को उखाड़ना तथा हल्की गुड़ाई करना
फसल बढवार के लिए
आवश्यक रहता है। खुरपी या फावड़े अथवा हेरो द्वारा हल्की गुडाई कर, मिट्टी
में वायु संचरण
बढ़ाया जा सकता है। खरपतवार नाशक दवा एट्राजीन की 0.5 किलोग्राम सक्रिय
अवयव मात्रा
प्रति हैक्टेयर को पानी में मिलाकर छिड़काव करने से भी खरपतवार का नियन्त्रण हो
सकता है।
फसल
के रोगों का नियन्त्रण -
(क) दाने का कन्ड:- यह रोग दानों के द्वारा ही फैलने वाला रोग है इसमें कण्ड
बीजाणु दानों में भर
जाने से दाने
गहरे भूरे पाउडर से घिर जाते है। जो पतली झिल्ली के टूटने से हवा में बिखर जाते
है। इसकी रोकथाम
के लिए बीजों की बुआई से पूर्व सेरेसान या एग्रोसान जी.एन. या किसी भी
कारबेन्डाजिम दवा
की 2.00 ग्राम मात्रा एक किलो
बीज में मिलाकर अच्छी तरह मिक्स कर बीजों
की बुआई करनी
चाहिए।
(ख) ज्वार का रस्ट या गेरूई रोग:- रोग इस रोग के कारण पत्तियो पर गहरे भूरे से
बैंगनी रंग के
धब्बे दिखाई देते
है। जिनसे पत्तियां सूखकर गिरने लगती है। इस रोग से फसल को बचाव के लिए
रोग रोधी किस्मों
का उपयोग करना चाहिए।
(ग) एन्थ्रेक्नोज:- इस रोग के आने पर पत्तों में हल्के लाल, गुलाबी रंग के धब्बे उभरते है। इन धब्बों
के बीच का भाग
सफेद तथा बाहरी भाग लाल या बैंगनी होता है। इस रोग से बचाव के लिये खड़ी
फसल में डाइथेन जेड-78 या बाविस्टिन (0.2%) घोल का उपयोग
किया जा सकता है। बीजोपचार भी इसके लिए लाभप्रद रहता है।
कीट नियन्त्रण:-
(क) तने की मक्खी:- यह घरेलू मक्खी से छोटी होती है इसका मेगट फसल को नुकसान
पहुंचाता
है। पौधों में 20-30 दिनों के समय में अधिक नुकसानदायक रहती है
इनके उपचार के लिए फसल
की बोआई के समय 15 किलो थिमेट या फोरेट प्रति हैक्टेयर की दर से
दवा को मृदा में मिला दिया
जाना उचित रहता
है।
(ख) तना छेदक (Stem Borer):- इस कीट का आक्रमण फसल पर 30-35 दिन में होना आरम्भ
होकर कलिया आने
तक चलता है। इसके मेगट (सुन्डीया) तने छेद करती है। इसकी रोकथाम के
लिए थायोडान या
सोबिन को 15 किलोग्राम प्रति
हैक्टेयर से काम लिया जा सकता है।
कटाई:- ज्वार की अधिकांश उन्नत किस्में 115-125 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। दाने अच्छी
तरह पकने के बाद
बालियों को काट लिया जाता है। दानों में पकने के समय आद्रता 25-30 प्रतिशत
तक पायी जाती है।
उपज:- ज्वार की उन्नत किस्मों की उपज 50-60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक हो सकती है। उपज
सामान्य रूप से
जलवायु, मृदा की स्थिति, सिंचाई, उर्वरकता आदि से प्रभावित होती है। अच्छी फसल
होने पर 40-45 क्विंटल दाना उपज प्रति हैक्टेयर तथा 125 से 150 क्विंटल प्रति हैक्टेयर सूखा चारा
प्राप्त होता है।
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