इज़्ज़त का कर्ज़
गाँव सोनपुर में एक लड़का रहता था – मुकेश। होशियार था, तेज़ दिमाग़ का मालिक, सपने ऊँचे, पर सोच छोटी। बचपन में उसके पिता गुजर गए थे और माँ ने खेतों में मज़दूरी करके उसे पढ़ाया-लिखाया। मुकेश शहर जाकर बड़ा आदमी बनना चाहता था। माँ हर रोज़ उसे आशीर्वाद देती और कहती, “बेटा, कामयाबी का रास्ता इज़्ज़त से होकर जाता है। मेरी लाज रखना।”
मुकेश ने शहर में जाकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की। माँ का भेजा हुआ हर एक रुपया वो खर्च करता, लेकिन धीरे-धीरे उसमें बदलाव आने लगा। वो अपने दोस्तों के सामने गाँव और माँ को नीचा दिखाने लगा। कहता, “गाँव वाले गंवार होते हैं, और मेरी माँ? बस एक अनपढ़ औरत है जो खेतों में काम करती है।”
शुरू में लोग हँसते थे, लेकिन धीरे-धीरे उसे भी समझ में आने लगा कि शायद वो अपनी जड़ों से कट रहा है, फिर भी अहंकार इतना बढ़ गया था कि वो मानने को तैयार नहीं था। उसकी माँ एक दिन अचानक शहर आ गई, बेटे से मिलने। फटे पुराने साड़ी में, पैरों में चप्पल भी टूटी हुई, लेकिन चेहरा चमकता हुआ – बेटे से मिलने की खुशी में।
मुकेश अपने दोस्तों के साथ रेस्टोरेंट में था, माँ को दरवाज़े पर खड़े देखा तो उसका चेहरा उतर गया। दोस्तों ने पूछा, “कौन है ये औरत?”
मुकेश ने कहा, “पता नहीं, कोई भिखारन होगी।”
माँ के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने आँखों में आँसू भर कर सिर्फ इतना कहा, “तेरा बाप मर गया, मैंने खेत जोते, भूखी रही पर तुझे कभी कमी न होने दी… तू मेरी ही इज़्ज़त को ठुकरा रहा है?”
मुकेश कुछ बोल नहीं पाया। माँ चुपचाप गाँव लौट गई।
वक़्त बीतता गया। मुकेश की पढ़ाई पूरी हुई, अच्छी नौकरी मिली, गाड़ी-घर सब कुछ, लेकिन अंदर से कुछ टूटा हुआ था। माँ की वो आँखें, वो दर्द, उसे चैन नहीं लेने देते थे। एक दिन अचानक गाँव लौट आया। माँ का घर टूटा-फूटा पड़ा था, और पता चला कि माँ अब नहीं रही।
पड़ोसी ने एक पुराना थैला मुकेश को दिया – माँ की निशानी। अंदर एक चिट्ठी थी, माँ के हाथ की लिखी:
"बेटा मुकेश,
मैं जानती हूँ तू बड़ा आदमी बनेगा। मेरा सपना तू ही है। लेकिन बेटा, एक बात याद रखना – इज़्ज़त कमाई जाती है, खरीदी नहीं। तू मेरी गोद में पला है, अगर तू मुझे पहचानने से इंकार कर दे तो तू दुनिया की नज़रों में सफल हो सकता है, पर मेरी नज़रों में नहीं। मेरा आशीर्वाद तुझे तभी मिलेगा जब तू अपनी माँ को स्वीकार करेगा।"
मुकेश उस चिट्ठी को पढ़कर फूट-फूट कर रोने लगा। उसने माँ की तस्वीर के सामने सिर झुका दिया, पहली बार सच्चे दिल से।
अब मुकेश हर साल गाँव आता है, माँ के नाम से स्कूल चलाता है – “माँ इज़्ज़त देवी विद्यालय।” बच्चों को सिखाता है –
“कितना भी बड़ा बनो, माँ की इज़्ज़त से बड़ा कोई पद नहीं होता।”
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