इज़्ज़त के बीज
गाँव रामपुर के किनारे एक हरा-भरा खेत था, जहाँ हर साल मीठे, रसीले तरबूज़ उगते थे। वो खेत गाँव में खास जाना जाता था – श्रीधर बाबा का खेत। श्रीधर बाबा बूढ़े ज़रूर हो चले थे, लेकिन उनका अनुभव, मेहनत और धरती से लगाव ऐसा था कि उनकी फसल हर बार गाँव में सबसे पहले और सबसे बेहतरीन होती।
उनके दो बेटे थे – राजू और विजय। राजू बड़ा बेटा था, शांत, विनम्र और हमेशा पिता के साथ खेत में काम करता। विजय छोटा था, थोड़ा बिगड़ा हुआ, पढ़ा-लिखा था, पर गाँव और खेतों से नफ़रत करता था। उसे लगता था कि खेती करना पिछड़ेपन की निशानी है और उसका बाप भी "पुराने ज़माने का गंवार" है।
बीज और व्यवहार
एक साल की बात है। श्रीधर बाबा ने अपने दोनों बेटों को बुलाया और कहा,
"इस बार मैं खेत के दो हिस्से कर रहा हूँ। एक भाग राजू को दूँगा, दूसरा विजय को। देखता हूँ तुम दोनों कौन अच्छी फसल उगाते हो।"
दोनों को एक जैसे बीज दिए गए – वही मीठे तरबूज़ के बीज जो बाबा ने वर्षों से संजोए थे।
राजू ने बड़े आदर और लगन से खेत तैयार किया। हर सुबह उठकर बाबा के पैर छूता, उनका आशीर्वाद लेता और खेत में उनकी सलाह पर काम करता। वो हर रोज़ मिट्टी की नमी, बीज की दूरी, सिंचाई का समय – सब कुछ बाबा से पूछकर करता। वो मानता था कि पिता की बातों में अनुभव और आशीर्वाद दोनों छिपे हैं।
विजय ने वही बीज लिए, लेकिन अंदर ही अंदर वो सोच रहा था – “अब्बा क्या जानते हैं खेती के नए तरीकों के बारे में? मैं इंटरनेट से सब जान लूँगा, और खुद उगा लूँगा।” उसने न पिता से सलाह ली, न कभी खेत में उनका आशीर्वाद लिया। बल्कि कई बार उनका मज़ाक भी उड़ाया –
"अब्बा, आप पुराने जमाने के किसान हैं, अब टेक्नोलॉजी का ज़माना है। देखना, मैं आपसे बेहतर उगाऊँगा।”
वक़्त और फ़सल
समय बीता, पौधे बड़े होने लगे। राजू के खेत में हरे-भरे बेल फैले, फूल खिले, और फिर तरबूज़ों ने आकार लेना शुरू किया – मोटे, भारी और मीठे। गाँव के लोग देखने आने लगे, और कहते –
"राजू का खेत तो जैसे सोना उगल रहा है!"
विजय का खेत भी हरा तो हुआ, पर बेलें कमजोर थीं, फल छोटे और कुछ तो काले पड़ने लगे। विजय परेशान हो गया – “मैंने तो सारी जानकारी ऑनलाइन देखी थी, फिर गलती कहाँ हुई?”
एक दिन का सच
कटाई का समय आया। राजू के खेत में लगभग 300 तरबूज़ निकले – सभी ताज़े, भारी, और बाज़ार में सबसे ऊँचे दाम पर बिके। श्रीधर बाबा ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा,
"बेटा, तूने मेरा सम्मान रखा, मेरी इज़्ज़त की। इन तरबूज़ों में सिर्फ पानी और खाद नहीं, तेरे संस्कार भी घुले हैं।”
विजय का नंबर आया – मुश्किल से 50 तरबूज़ निकले, वो भी आधे खराब। व्यापारी लेने भी न आए। गाँव वालों ने कहा,
"जिसने पिता की बात नहीं मानी, उसके खेत में फल कैसे मीठे होते?”
विजय शर्मिंदा हो गया। वो बाबा के पास आया, आँखों में आँसू लिए बोला,
"अब्बा, माफ करिए। मैंने आपकी इज़्ज़त नहीं की, इसलिए मेरी ज़मीन भी मुझसे रूठ गई।”
बाबा ने मुस्कुराकर कहा,
"बेटा, ज़मीन सिर्फ बीज नहीं पहचानती, वो किसान के दिल की भी सुने है। और जब दिल में पिता के लिए आदर नहीं, तो फसल भी सूख जाती है।”
एक नई शुरुआत
विजय ने सबक लिया। अगली बार वो खुद बाबा के साथ खेत में काम करने लगा, हर बात सीखी, इज़्ज़त की, और एक साल बाद उसका खेत भी फलों से भर गया।
अब गाँव में दोनों भाइयों के खेत प्रसिद्ध हैं, लेकिन लोग आज भी कहते हैं –
"वो 300 तरबूज़ सिर्फ मेहनत से नहीं, पिता की इज़्ज़त के आशीर्वाद से उगे थे।”
सीख:
पिता सिर्फ मार्गदर्शक नहीं होते, उनका अनुभव और सम्मान ही हमारी जड़ों को सींचता है। जो अपनी ज़मीन को फलता देखना चाहता है, उसे पहले अपने बुज़ुर्गों की इज़्ज़त करनी होती है। क्योंकि जिस दिल में आदर नहीं, वहाँ न फसल उगती है, न सफलता।
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